अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: भारत में कोरोना वायरस महामारी को एक साल से ज्यादा समय हो गया है। 22 मार्च 2020 को भारत में कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन लगा था. वहीं कोरोना की पहली और दूसरी लहर के आने से मामले कितने तेज़ी से बढ़ रहे थे की आधी से ज्यादा आबादी ने इसकी चपेट में आकर अपनी जान से हाथ धो बैठे। वहीं तीसरी लहर पहले के मुकाबले इस बार वैज्ञानिक ज्यादा तेजी से सक्रिय हुए हैं। चंद दिनों के भीतर ही कोरोना वायरस की नई किस्म ओमिक्रॉन के जीनोम को खंगाल लिया गया है और इससे मिली जानकारी को पूरी दुनिया के साथ शेयर भी कर लिया गया है। मुमकिन है कि आने वाले दिनों में इसका फायदा भी दिखाई दे, लेकिन इस सवाल का जवाब विशेषज्ञ अभी भी नहीं दे पा रहे हैं कि कोरोना की पहली और दूसरी लहर में जो हुआ इस बार भी उसका एक्शन रिप्ले होगा या नहीं।
इसी से जुड़ा एक सवाल यह भी है कि पिछली बार जो हुआ था उससे हमने कुछ सीखा या नहीं?यह सवाल दुनिया भर में पूछा जा रहा है कि लेकिन भारत तक पहुंचते-पहुंचते यह सवाल अपना रूप बदल लेता है। यहां यह सवाल है कि पिछली दो बार हम मात खा गए थे लेकिन क्या इस बार हम सचमुच तैयार हैं?
यह सवाल उस समय पूछा जा रहा है जब कुछ ही दिन पहले कोविड प्रबंधन के मामले में अपनी पीठ थपथपाने के आयोजन पूरी उत्सवधर्मिता के साथ मनाए गए थे। पहले बात इसी पीठ थपथपाने की।
टीकाकरण की रफ़्तार
यह ठीक है कि कोविड टीकाकरण के मामले में भारत ने शुरुआती कुछ झटकों के बाद काफी अच्छी उपलब्धि हासिल की। पूरी आबादी का पूर्ण टीकाकरण अभी भी बहुत दूर है लेकिन जो कुछ हुआ उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कोविड मरीजों को सही समय पर जरूरी इलाज दे सकने में हम भले ही सफल न हो सके हों लेकिन इसके बावजूद अगर बड़े पैमाने पर टीकाकरण कर पा रहे हैं तो यह संतोष की बात है। फिलहाल यह टीका ही इकलौता हथियार है जिससे
हम इस महामारी को टक्कर देने की कोशिश कर रहे हैं।
कोविड के वर्तमान टीके नए वैरिएंट के लिए भी वैसे ही कारगर होंगे इस पर वैज्ञानिकों को शक है। अगर ये टीके कारगर नहीं रह जाते या नए वैरिएंट के ख़िलाफ़ उनके प्रभाव में कमी आती है तो फिर से हम वहीं खड़े होंगे जहां इस साल के शुरू में हम बीटा वैरिएंट के आने से पहले खड़े थे।
स्वास्थ्य व्यवस्था का इलाज
स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी आपदा के दौरान किसी समाज को कैसे परेशान कर सकती है इसे भी हमने देखा था। अस्पतालों में बेड की कमी, डॉक्टरों की कमी, दवाओं की कमी और यहां तक कि ऑक्सीजन की कमी, बहुत से लोग जो बच सकते थे वे भी इन व्याधियों के शिकार बन गए। क्या पिछले छह-सात महीनों में हम अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था का इलाज कर सके हैं? समस्या सिर्फ स्वास्थ्य व्यवस्था की ही नहीं है, महामारी का दूसरा सबसे बड़ा शिकार बनती है अर्थव्यवस्था। महामारी के साथ ही अर्थव्यवस्था ने किस तरह से गोता लगाया इसके कड़वे अनुभवों को हम अभी तक नहीं भूले होंगे। लेकिन हम नहीं जानते कि अर्थव्यवस्था को अगली किसी आशंका से बचाने की क्या तैयारी है।
क्या लॉकडाउन लगेगा?
पिछली बार जब कोविड के कारण लॉकडाउन घोषित हुआ तो अचानक ही उद्योग-धंधे बंद कर दिए गए। लाखों-करोड़ों लोग शहरों को छोड़कर जैसे-तैसे अपने गांव लौटने को मजबूर हो गए। पता नहीं उनमें से कितने लोग अभी तक लौट आए होंगे और कितने नहीं। अगर फिर से एक बार लॉकडाउन लागू करना पड़ता है तो इन लोगों को रोकने की या फिर उनके गांव तक पहुँचाने की कोई व्यवस्था की गई है या नहीं।
यह मामला आशंकाओं को उठाने और अटकलें लगाने भर का नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने से जब-जब केंद्र में बीजेपी की सरकार रही है एक शब्द अक्सर सुनाई देता रहा है। प्रो-एक्टिव एप्रोच। यानी आशंकाओं को भाँपकर और उनके खतरों को आंककर, समस्या आने से पहले ही उससे निपटने की तैयारी पूरी कर लेना। मामला यह देखने का भी है केंद्र सरकार अपने इस मूल मंत्र पर कितना खरी उतरी है?
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